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त्वं नो॑ वायवेषा॒मपू॑र्व्य॒: सोमा॑नां प्रथ॒मः पी॒तिम॑र्हसि सु॒तानां॑ पी॒तिम॑र्हसि। उ॒तो वि॒हुत्म॑तीनां वि॒शां व॑व॒र्जुषी॑णाम्। विश्वा॒ इत्ते॑ धे॒नवो॑ दुह्र आ॒शिरं॑ घृ॒तं दु॑ह्रत आ॒शिर॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ no vāyav eṣām apūrvyaḥ somānām prathamaḥ pītim arhasi sutānām pītim arhasi | uto vihutmatīnāṁ viśāṁ vavarjuṣīṇām | viśvā it te dhenavo duhra āśiraṁ ghṛtaṁ duhrata āśiram ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। नः॒। वा॒यो॒ इति॑। ए॒षा॒म्। अपू॑र्व्यः। सोमा॑नाम्। प्र॒थ॒मः। पी॒तिम्। अ॒र्ह॒सि॒। सु॒ताना॑म्। पी॒तिम्। अ॒र्ह॒सि॒। उ॒तो इति॑। वि॒हुत्म॑तीनाम्। वि॒शाम्। व॒व॒र्जुषी॑णाम्। विश्वाः॑। इत्। ते॒। धे॒नवः॑। दु॒ह्रे॒। आ॒ऽशिर॑म्। घृ॒तम्। दु॒ह्र॒ते॒। आ॒ऽशिर॑म् ॥ १.१३४.६

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:134» मन्त्र:6 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:23» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:20» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वायो) प्राण के समान वर्त्तमान परम बलवान् (अपूर्व्यः) जो अगलों ने नहीं प्रसिद्ध किये वे अपूर्व गुणी (त्वम्) आप (नः) हमारे (सुतानाम्) उत्तम क्रिया से निकाले हुए (सोमानाम्) ऐश्वर्य्य करनेवाले बड़ी-बड़ी ओषधियों के रसों के (पीतिम्) पीने को (अर्हसि) योग्य हो और (प्रथमः) प्रथम विख्यात आप (एषाम्) इन उक्त पदार्थों के रसों के (पीतिमर्हसि) पीने को योग्य हो जो (ते) आपकी (विश्वाः) समस्त (धेनवः) गौएँ (इत्) ही (आशिरम्) भोगने के (घृतम्) कान्तियुक्त घृत को (दुहते) पूरा करती और (आशिरम्) अच्छे प्रकार भोजन करने योग्य दुग्ध आदि पदार्थ को (दुहे) पूरा करती उनकी और (ववर्जुषीणाम्) निरन्तर दोषों को त्याग करती हुई (विहुत्मतीनाम्) जिनमें विशेषता से होम करनेवाला विचारशील मनुष्य विद्यमान उन (विशाम्) प्रजाओं की (उतो) निश्चय से पालना कीजिये ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। राजपुरुषों को चाहिये कि ब्रह्मचर्य्य और उत्तम औषध के सेवन और योग्य आहार-विहारों से शरीर और आत्मा के बल की उन्नति कर धर्म से प्रजा की पालना करने में स्थिर हों ॥ ६ ॥।इस सूक्त में पवन के दृष्टान्त से शूरवीरों के न्यायविषयकों में प्रजा कर्म के वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह एकसौ चौंतीसवाँ सूक्त और तेईसवाँ वर्ग पूरा हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे वायो परमबलवन् अपूर्व्यस्त्वं नः सुतानां सोमानां पीतिमर्हसि प्रथमस्त्वमेषां पीतिमर्हसि यास्ते विश्वा धेनव इदेवाशिरं घृतं दुह्रत आशिरं दुह्रे तासां ववर्जुषीणां विहुत्मतीनां विशामुतो रक्षणं सततं कुरु ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) (नः) अस्माकम् (वायो) प्राण इव वर्त्तमान (एषाम्) (अपूर्व्यः) पूर्वैः कृतः पूर्व्यो न पूर्व्योऽपूर्व्यः (सोमानाम्) ऐश्वर्यकारकाणां महौषधिरसानाम् (प्रथमः) आदिमः प्रख्याता वा (पीतिम्) पानम् (अर्हसि) कर्त्तुं योग्योऽसि (सुतानाम्) सुक्रियया निष्पादितानाम् (पीतिम्) पानम् (अर्हसि) (उतो) अपि (विहुत्मतीनाम्) जुह्वति स्वीकुर्वन्ति याभिस्ता विहुतो मतयो यासु तासाम् (विशाम्) प्रजानाम् (ववर्जुषीणाम्) भृशं दोषान्वर्जयन्तीनाम्। अत्र यङ्लुगन्ताद्व्रजेः क्विबन्तं रूपम्। (विश्वाः) सर्वाः (इत्) एव (ते) तव (धेनवः) गावः (दुह्रे) पिपुरति (आशिरम्) भोगम् (घृतम्) प्रदीप्तम् (दुह्रते) प्रपूरयन्ति (आशिरम्) समन्ताद्भोग्यम् ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। राजपुरुषैर्ब्रह्मचर्यस्वौषधसेवनयुक्ताहारविहारैः शरीरात्मबलमुन्नीय धर्मेण प्रजापालने स्थिरैर्भवितव्यम् ॥ ६ ॥अत्र वायुदृष्टान्तेन शूरन्यायेषु प्रजाकर्मवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीत्यवगन्तव्यम् ॥इति चतुस्त्रिंशदुत्तरं शततमं सूक्तं त्रयोविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. राजपुरुषांनी, ब्रह्मचर्य, उत्तम औषध व योग्य आहार-विहाराने शरीर व आत्म्याने बल वाढवून धर्माने प्रजेच्या पालनात स्थिर व्हावे. ॥ ६ ॥